Tuesday, September 15, 2020

बस कंडक्टर से कैसे बने हास्य कलाकार -- जॉनी वॉकर


"सर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाये " यह लोकप्रिय गीत तो आप सभी सुना होगा और गुनगुनाया भी होगा।  फिल्म "प्यासा "  के इस गीत को परदे पर हास्य अभिनेता जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया था।  ११ नवम्बर १९२६ को जन्मे जॉनी वॉकर का असली नाम बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी था। जॉनी वॉकर नाम तो उन्हें अभिनेता गुरुदत्त ने दिया था। आइये जानते हैं एक बस कंडक्टर से लोकप्रिय हास्य अभिनेता कैसे बने  बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी। 

३०० के करीब हिंदी फिल्मों में अपने अभिनय की छाप छोड़ने वाले जॉनी वॉकर का जन्म इंदौर में हुआ था। वहां उनके पिता एक मिल में काम करते करते थे। रोजी -  रोटी की तलाश में उनका परिवार बॉम्बे चला आया। बॉम्बे में बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी ने अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए कभी फल बेचे कभी सब्जी तो कभी उन्होंने आइस क्रीम भी बेची और फिर बाद में उनकी नौकरी एक बस कंडक्टर के रूप में लग गयी। हालाँकि वो नौकरी करते थे लेकिन उनका सपना था फिल्मों में हास्य कलाकार बनने का। बदरुद्दीन नूर मोहम्मद चार्ली के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उनके द्वारा परदे पर अभिनीत अदाकारी को अपने जीवन में करके लोगों को हँसाया करते थे। यहां तक वो अपनी मिमिक्री से बस के यात्रियों का मनोरंजन भी किया करते थे। ऐसी ही किसी बस में लोकप्रिय अभिनेता बलराज साहनी ने बदरुद्दीन को देखा और अभिनेता गुरुदत्त से मिलवाया।

अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों फिल्म "बाज़ी " लिख रहे थे। उन्होंने बदरुद्दीन को गुरुदत्त के ऑफिस में बुलाया जहाँ गुरुदत्त चेतन आनंद के साथ किसी बात पर चर्चा कर रहे थे, तभी कहीं से बदरुद्दीन आ गये शराबी बन कर  उन दोनों के बीच में पँहुच गये और गुरुदत्त को परेशान करने लगे। जब गुरुदत्त कुछ ज्यादा ही परेशान हो गये तब उन्होंने अपने स्टाफ को हिदायत दी कि शराबी बने बदरुद्दीन को ऑफिस से बाहर निकालने की। तभी बलराज साहनी आ गये और जोर -- जोर से हँसने लगे और उन्होंने गुरुदत्त को बदरुद्दीन के बारें में सब बताया। बदरुद्दीन के अभिनय से इतने प्रभावित हुए गुरुदत्त कि उन्होंने अपनी फिल्म "बाज़ी " में उन्हें काम भी दे दिया साथ ही उन्होंने जॉनी वॉकर शराब के एक लोकप्रिय ब्रांड के नाम पर  बदरुद्दीन को नया नाम जॉनी वॉकर भी दिया। बस तभी से बदरुद्दीन हम सबके जॉनी वॉकर बन गये। फिल्म "बाज़ी" के बाद जब भी गुरदत्त ने कोई फिल्म बनाई उन्होंने जॉनी वॉकर को अपनी फिल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य ही दी। गुरुदत्त और जॉनी वॉकर ने एक साथ बाज़ी ,आर पार, मिस्टर ऐंड मिसेज ५५ , सीआईडी, प्यासा, कागज के फूल आदि फिल्मों में काम किया है। 

हास्य अभिनेताओं पर गीत फिल्माने का सिलसिला भी अभिनेता जॉनी वॉकर के समय में ही हुआ।फिल्म 'आर पार' का गाना 'अरे तौबा तौबा' जॉनी वाकर पर फिल्माया गया पहला गाना था। बाद में उन पर सर जो तेरा चकराए , ये है बम्बई मेरी जान, जाने कहां मेरा जिगर गया जी, जंगल में मोर नाचा किसने देखा, गरीब जानके हमको न तुम भुला देना, हम भी अगर बच्चे होते और मैं बम्बई का बाबू जैसे कई सदाबहार गाने उन पर  फिल्माये गये। जॉनी वॉकर  के  गीतों की लोकप्रियता का आलम यह था कि फिल्म निर्माता विशेष रूप से  लिये अपनी फिल्मों में उनके गीतों को रखवाने लगे। जॉनी वॉकर  ही पहले ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने सेकेटरी रखने का चलन शुरू किया।  सबसे पहले जॉनी वॉकर ने ही संडे को शूटिंग नहीं करने का फैसला किया। 

 हास्य भूमिकाओं में जॉनी इस कदर जमे कि उन्हें मुख्य भूमिका में लेकर मिस्टर कार्टून एम.ए. ,जरा बचके, रिक्शावाला, मिस्टर जॉन जैसी फिल्में बनने लगीं। एक फिल्म तो उनके ही नाम 'जॉनी वाकर' भी थी । जॉनी वॉकर ने जब भी किसी किरदार को अभिनीत किया वो दर्शकों के दिलों पर छा गया , जैसे १९७१ में आयी  ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म "आनंद" का किरदार।  ईसा भाई सूरतवाला का किरदार एक ऐसा किरदार है जिसे आज भी दर्शक याद करते हैं और उसका बोला संवाद  "जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जहांपनाह। हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है। कब, कौन, कैसे उठेगा, कोई नहीं बता सकता।' कहते है कि यह किरदार फिल्म में बहुत ही छोटा था और उस समय जॉनी फिल्म के नायक के बराबर की भूमिका करते थे। फिल्म "आनंद "  की इस छोटी भूमिका के लिए ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें बड़ी मुश्किल से तैयार किया। 

सन १९५१ में फिल्म "बाज़ी " से अपना अभिनय सफर शुरू करने वाले  जॉनी वॉकर ने ने १९८८ तक लगातार अपने अभिनय से दर्शकों को हँसाया। लेकिन इसके बाद अश्लील हास्य और द्विअर्थी संवादों की वजह से वो फिल्मों से दूर हो गये लेकिन जब १९९७ में अभिनेता कमल हासन ने उन्हें फिल्म "चाची ४२० " के लिए अप्रोच किया तो वो मना नहीं कर सके। जॉनी वॉकर को उनके हास्य अभिनय के लिये फिल्म "शिकार " के लिए फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला था। इसी तरह फिल्म "मधुमती " के लिए सहायक अभिनेता का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला था। 

ऐसा शराबी जिसने कभी शराब नही पी -- केश्टो मुखर्जी

हास्य अभिनेता केश्टो मुखर्जी का नाम आते ही हम सभी की आँखों के आगे के एक ऐसे शराबी का चेहरा सामने आने लगता है जो दारु के नशे में बात करता है और लड़खड़ा कर चलता है और ऐसे संवाद बोलता है जिसे सुनकर देखकर हम हँस - हँस कर लोट पोट हो जाते हैं। केश्टो मुखर्जी ऐसे हास्य कलाकार थे जिन्होंने फिल्मों में सबसे ज्यादा शराबी की भूमिकायें अभिनीत की। जबकि असली जिंदगी में उन्होंने कभी दारु नहीं पी।

केश्टो मुखर्जी का जन्म ७ अगस्त १९०५ को मुंबई यानि उस समय के बॉम्बे में हुआ था। उन्होंने अपने अभिनय सफर की शुरुआत बंगाली फिल्मों से की। उन्होंने  लोकप्रिय निर्देशक ऋत्विक घटक की बारी थेके पालिये ,अजंत्रिक , नागरिक और जुक्ति टक्को आर गप्पो आदि फिल्मों में काफी महत्वपूर्ण भूमिकायें अभिनीत की। यूं तो केश्टो ने सन १९५७ में फिल्म "मुसाफिर " हिंदी फिल्मों में अपनी शुरुआत की। लेकिन शराबी की भूमिका जिसके लिए वो लोकप्रिय हुए उन्हें १९७० में रिलीज़ फिल्म " माँ और ममता " में मिली। 

हुआ कुछ यूँ कि निर्देशक असित सेन को एक ऐसे अभिनेता की जरूरत थी जो शराबी का किरदार अभिनीत कर सके और केश्टो मुखर्जी को काम की तलाश थी। हालाँकि इस फिल्म से पहले केश्टो ने मुसाफिर , खजांची , राखी और रायफल , मासूम , परख , आरती, आशिक , प्रेम पत्र , असली नकली ,राहु केतु ,बीवी और मकान , मँझली दीदी ,  अपना घर अपनी कहानी ,पड़ोसन , पिंजरे के पंछी और अनोखी रात आदि फिल्मों में काम किया था। 

निर्देशक असित सेन ने अपनी फिल्म में केश्टो को शराबी की भूमिका दी और केश्टो ने भी उस भूमिका को ऐसे निभाया कि उनका शराबी किरदार  दर्शक क्या फिल्म निर्माता- निर्देशकों को भी बेहद पसंद आया बस फिर क्या था जब भी किसी फिल्म में शराबी की भूमिका हो अभिनेता बस केश्टो ही होते थे। हर फिल्म में शराबी की उनकी भूमिका इतनी सशक्त होती थी कि लोग समझने लगे कि वो पक्के शराबी हैं। जबकि असल में ऐसा बिलकुल भी नहीं था।

कहा जाता है  कि एक फिल्म में केश्टो ने कुत्ते की भी आवाज़ निकाली थी। उन्हें काम की तलाश थी तो वो फिल्म निर्देशकों  से मिलते रहते थे। इसी तरह केश्टो बिमल दा से भी मिले लेकिन केश्टो के योग्य उनके पास कोई किरदार नहीं था। उन्होंने उन्हें मना किया कि अभी उनकी फिल्म में कोई भूमिका नहीं है  लेकिन इसके बावजूद भी केश्टो गये नहीं उनके पास ही खड़े रहे तब बिमल दा को गुस्सा आ गया और उन्होंने उनसे पूछा कि क्या कुत्ते की आवाज़ निकाल सकते हो। केश्टो भी कहाँ पीछे हटने वाले थे उन्होंने कुत्ते की आवाज़ निकाल कर विमल दा को भी अचम्भित कर दिया।

शराबी की भूमिकाओं के अलावा भी कुछ फ़िल्में ऐसी हैं जिनमें केश्टो ने बेहतरीन काम किया। उन्होंने गुलज़ार की फिल्म "मेरे अपने" में अभिनेत्री मीना कुमारी के दूर के रिश्तेदार का किरदार अभिनीत किया था। इसी तरह गुलज़ार की फिल्म "परिचय " में उन्होंने बच्चों को पढ़ाने वाले टीचर की भूमिका की। जिसे बच्चे डरा कर भगा देते हैं।फिल्म जंजीर , शोले  और आपकी कसम में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया। तीसरी कसम में केश्टो ने राज कपूर के साथ काम किया। फिल्म "साधु सुर शैतान" के अलावा फिल्म "पड़ोसन " में उन्होंने अभिनेता किशोर कुमार के साथ काम किया। इसी तरह अभिनेता महमूद की फिल्म "बॉम्बे टू गोवा " में एक ऊंघते हुए यात्री का किरदार अभिनीत किया।

यूँ तो केश्टो मुखर्जी ने अनेकों फिल्मों में अभिनय किया है लेकिन जब - जब उनकी फिल्मों का जिक्र होगा तब उनकी फिल्म  "पड़ोसन" , पिया का घर , तीसरी कसम , गुड्डी, चुपके चुपके ,  लोफर , जंजीर ,द बर्निग ट्रेन ,गोलमाल ,खूबसूरत  आदि फिल्मों का नाम जरूर लिया जायेगा।  १५० के करीब फिल्मों में अभिनय करने वाले केश्टो मुखर्जी की मृत्यु २ मार्च १९८२ को हुई। उनकी बेटी सुष्मिता मुखर्जी फिल्मों और टी वी में आज भी काम करती हैं और उनके बेटे  बबलू मुखर्जी क्या करते हैं नहीं पता लेकिन एक समय में उन्होंने अनेकों टी वी धारावाहिकों में काम किया है।  

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